
रांची। झारखंड राज्य के निर्माण आंदोलन के प्रणेता, आदिवासी अस्मिता के सजग प्रहरी और झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM) के संस्थापक, पूर्व मुख्यमंत्री शिबू सोरेन अब हमारे बीच नहीं रहे। उनके निधन से एक ऐसा अध्याय समाप्त हो गया है, जो वर्षों तक आदिवासी अधिकारों, सामाजिक न्याय और संघर्षशील राजनीति का पर्याय रहा। ‘गुरुजी’ के नाम से लोकप्रिय सोरेन का जाना, न केवल झारखंड बल्कि पूरे देश की राजनीति के लिए एक गहरी और अपूरणीय क्षति है।
उनकी जीवनगाथा किसी कालजयी महाकाव्य की तरह है — जिसमें हर पंक्ति जनसंघर्ष से सिंचित, हर अध्याय न्याय और अधिकार की पुकार से भरा हुआ है। संविधान में उपेक्षित वर्गों के लिए स्थान दिलाने वाले इस योद्धा ने न तो सत्ता की चमक को साध्य बनाया और न ही सुविधाओं के पीछे भागे। उनका संपूर्ण जीवन एक जननायक की तरह बीता — जमीनी आंदोलनों में, जंगलों की छांव में, किसानों के बीच और संघर्ष की धूप में तपते हुए।
शिबू सोरेन ने झारखंड राज्य निर्माण के लिए जिस दृढ़ता और जुझारूपन से आंदोलन खड़ा किया, वह आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणास्रोत रहेगा। जल, जंगल, जमीन के मुद्दों पर उन्होंने जिस बेबाकी से बात रखी, वह न केवल झारखंड बल्कि समूचे भारत में आदिवासी स्वाभिमान का स्वर बन गया। उन्होंने आदिवासी समाज को आत्मसम्मान के साथ खड़ा होना सिखाया, उसे उसकी जड़ों से जोड़ने का काम किया।
उनकी राजनीति विकास की नहीं, दिशा की बात करती थी। उन्होंने संसद और विधानसभाओं को जनसरोकारों की भूमि बनाया, सत्ता को माध्यम समझा, साध्य नहीं। उन्होंने यह सिखाया कि राजनीति अगर ज़मीन से जुड़े तो समाज बदल सकती है और अगर उस पर अधिकारों का भार हो, तो वह लोगों की तकदीर भी लिख सकती है।
उनका जीवन उदाहरण है कि कैसे एक शिक्षक, एक आंदोलनकारी, एक मुख्यमंत्री और एक पथप्रदर्शक एक ही व्यक्तित्व में समाहित हो सकता है। आज जब राजनीति में मूल्यों और आदर्शों की कमी की बात होती है, तब शिबू सोरेन का जीवन मानदंड के रूप में हमारे सामने आता है।
उनके निधन से झारखंड की राजनीति ही नहीं, वह सांस्कृतिक चेतना भी शोकाकुल है जो ‘गुरुजी’ में अपनी छाया देखती थी।
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